ढलते सुरज की रंगत किसी शायरी से कम नही
शमा के जलने मे खून की रंगत नही
जिन्दा जलें वो जो बे खबर हैं
जंजीरों के पिघलने का उन्हें गम नही
इंसानी जिन्दगी कत्ले आम है
इस लहु से जिन्दगी लथपथ है
उम्मीद के सहारे जीना सीख ले
कल के सूरज की रंगत देख ले.
29-10-09
सुजला
Saturday, February 18, 2012
सर्दि की एक शाम
-------------------------
सर्दि की एक शाम
जब कोहरे की चादर छाई थी
सोच में पडी थी,मै कौंन हूं?
क्या मेरी पहचान है?
फिर सोचा क्यों न कहूं
मै कौन हूं?
जिन्हे कोई वास्ता नही
मेरे होने ना होने से
कोहरे की चादर हटा कर
’उन्हे’ बताने का
मुझे कोई मोह नही
जोमुझे जानते, समझते हैं
वे सर्दि की
उस शाम का
धीरे से ढलने का
इंतजार करेंगें
वही तो हैं जिन्हे मै
मिलना देखना चाहती हूं
मेरी सोच को वो समझते हैं
सर्दि की इस शाम ने मुझे
जीवन से प्यार करना सिखाया है
कोहरे की चादर के उस पार
जीवन प्यार से बुलाता है
कैसे दिन बिताउं
ये मेरे पर निर्भ्रर है
प्यार का अहसास बताएगा
मै कौन हूं
वसंत की इस शाम का
छटे हुए कोहरे का
खिलखिलाते ऊन फूलों का
मेरे इस प्यार भरे जीवन को
इंतजार है किसी के आने का
सुगन्धित वायू की
मन्द मन्द खुशबू
लहलहाते खेतों पर
खिलखिलाती सरसों
सुनहरी छटा बिखरती
ढलती शाम को
ढोलकी की ताल पर
दूर से आती होरी की गूंज को
कैसे अनदेखा
अनसुना कर दूं?
अब तो समझ गये ना
मै कौन हूं
प्रक़ृती की
अनमोल देनहूं
सुजला
25-2-11
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सर्दि की एक शाम
जब कोहरे की चादर छाई थी
सोच में पडी थी,मै कौंन हूं?
क्या मेरी पहचान है?
फिर सोचा क्यों न कहूं
मै कौन हूं?
जिन्हे कोई वास्ता नही
मेरे होने ना होने से
कोहरे की चादर हटा कर
’उन्हे’ बताने का
मुझे कोई मोह नही
जोमुझे जानते, समझते हैं
वे सर्दि की
उस शाम का
धीरे से ढलने का
इंतजार करेंगें
वही तो हैं जिन्हे मै
मिलना देखना चाहती हूं
मेरी सोच को वो समझते हैं
सर्दि की इस शाम ने मुझे
जीवन से प्यार करना सिखाया है
कोहरे की चादर के उस पार
जीवन प्यार से बुलाता है
कैसे दिन बिताउं
ये मेरे पर निर्भ्रर है
प्यार का अहसास बताएगा
मै कौन हूं
वसंत की इस शाम का
छटे हुए कोहरे का
खिलखिलाते ऊन फूलों का
मेरे इस प्यार भरे जीवन को
इंतजार है किसी के आने का
सुगन्धित वायू की
मन्द मन्द खुशबू
लहलहाते खेतों पर
खिलखिलाती सरसों
सुनहरी छटा बिखरती
ढलती शाम को
ढोलकी की ताल पर
दूर से आती होरी की गूंज को
कैसे अनदेखा
अनसुना कर दूं?
अब तो समझ गये ना
मै कौन हूं
प्रक़ृती की
अनमोल देनहूं
सुजला
25-2-11
Tuesday, February 10, 2009
Ek bund paani
Sunday, October 12, 2008
ek bund paani ki ptte par atki thi
neeche bahataa paani
upar ghanee badali thi
kyaa karun kyaa na karun ?
soch me padee thi
geer ti hun to baha jaa ungee ,
ruktee hun to dhul jaaungee
aisaa hi kuch ye jeevan hai ,
marne se darataa hai
jeene ko tarastaa hai ,
is udhed bun me
na jeetaa hai na marataa hai .
ek bund paani ki ptte par atki thi
neeche bahataa paani
upar ghanee badali thi
kyaa karun kyaa na karun ?
soch me padee thi
geer ti hun to baha jaa ungee ,
ruktee hun to dhul jaaungee
aisaa hi kuch ye jeevan hai ,
marne se darataa hai
jeene ko tarastaa hai ,
is udhed bun me
na jeetaa hai na marataa hai .
Friday, November 14, 2008
नन्दिग्राम के नन्दि
एक बार भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बैठे थे. सामने नन्दि(बैल)बैठ कर उनकि हर बात पर सिर सिर
हिलारहा था. भगवान क्या कह रहे थेये शायद उसके समझ से बाहर की बात थी. सही , गलत का फर्क समझ ने की क्षमता उनमे नही थी.
आज नन्दिग्राम के उन गरीबों का हाल उसी नन्दिबैल के समान है. अपने सामने बीठा कर आप उनसे जो भी कहेंगे वो सर हिला देंगे. ‘ममता ‘ ने ममता दिखाइ उसके साथ हो लीये, माओवादि यों ने क्रोध दिलाया उनके पीछे चल दिये, सी.पी.एम. ने नंगा कर दिया तो उनके सामने गिडगिडा दिये , क्या करें बिचारे, ये सभि ( ममता, माओवादी, सी.पी.एम. ) उनके भगवान जो बन बैठे!
क्या विडम्बना है, देश को आजादी मिले 60 वर्श होने को आये पर ये नन्दि आज भी सिर हिला रहे हैं. कहने को तो हर राजनैतिक पार्टि, और विशेश रुप से सी. पी. एम. जो पिछले तीन दशकों से उनके माईबाप बने फिरते हैं, अपनी रोटी पकाने के लिये इन नन्दि यों को ईन्धन बनाते रहे हैं और बनाते रहेंगे.
आज सिर्फ नन्दिग्राम ही नही, देश के हर कोने मे दो स्पष्ट लकीरें हैं जिसने सम्पुर्ण समाज को तीन हिस्सों मे बांट दिया है- एक वो जो लकीर के इस तरफ हैं, अपने आप को देश का कर्ताधर्ता मानते हैं, बीच मे वो मध्यम वर्ग है जो त्रिशंकू की तरह लटका हुआ है जो सबकुछ समझने की क्षमता रखता है पर कुछ भी कर सकने मे असमर्थ है क्योंकी उसे उन कर्ताधर्ता ओं का खौफ है- न जाने कब गाज गिरे- और फिर एक लकीर है जिसके उस तरफ वो नन्दिबैल हैं जो अनपढ है, नीरीह है, जमीन से जुडे हैं जिन्होने शायद जन्म से ही भूखा, प्यासा, नग्न रहना सीख लिया है. लेकिन, ये वो बेशकिमती हीरे हैं जिन्हे हर कर्ताधर्ता अपने बगल मे दबाये फिरता है ताकी वे भगवान बने रहें, उनका सिंहासन इन हिरों की बदौलत जगमगाता रहे. मुख मे र राम बगल मे छुरि लिये इन कर्ताधर्ता ओं ने नन्दिग्राम के उन सभी नन्दियों को अपने सामने बिठा कर सर हिलाने के लिये इतना मजबूर कर दिया कि अब शायद वो कभी भी सिर उठा कर अपने भगवान को देखने का, उनसे अपने प्रश्नो के जवाब मांगने का साहस न कर सकेंगे. इती
एक बार भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बैठे थे. सामने नन्दि(बैल)बैठ कर उनकि हर बात पर सिर सिर
हिलारहा था. भगवान क्या कह रहे थेये शायद उसके समझ से बाहर की बात थी. सही , गलत का फर्क समझ ने की क्षमता उनमे नही थी.
आज नन्दिग्राम के उन गरीबों का हाल उसी नन्दिबैल के समान है. अपने सामने बीठा कर आप उनसे जो भी कहेंगे वो सर हिला देंगे. ‘ममता ‘ ने ममता दिखाइ उसके साथ हो लीये, माओवादि यों ने क्रोध दिलाया उनके पीछे चल दिये, सी.पी.एम. ने नंगा कर दिया तो उनके सामने गिडगिडा दिये , क्या करें बिचारे, ये सभि ( ममता, माओवादी, सी.पी.एम. ) उनके भगवान जो बन बैठे!
क्या विडम्बना है, देश को आजादी मिले 60 वर्श होने को आये पर ये नन्दि आज भी सिर हिला रहे हैं. कहने को तो हर राजनैतिक पार्टि, और विशेश रुप से सी. पी. एम. जो पिछले तीन दशकों से उनके माईबाप बने फिरते हैं, अपनी रोटी पकाने के लिये इन नन्दि यों को ईन्धन बनाते रहे हैं और बनाते रहेंगे.
आज सिर्फ नन्दिग्राम ही नही, देश के हर कोने मे दो स्पष्ट लकीरें हैं जिसने सम्पुर्ण समाज को तीन हिस्सों मे बांट दिया है- एक वो जो लकीर के इस तरफ हैं, अपने आप को देश का कर्ताधर्ता मानते हैं, बीच मे वो मध्यम वर्ग है जो त्रिशंकू की तरह लटका हुआ है जो सबकुछ समझने की क्षमता रखता है पर कुछ भी कर सकने मे असमर्थ है क्योंकी उसे उन कर्ताधर्ता ओं का खौफ है- न जाने कब गाज गिरे- और फिर एक लकीर है जिसके उस तरफ वो नन्दिबैल हैं जो अनपढ है, नीरीह है, जमीन से जुडे हैं जिन्होने शायद जन्म से ही भूखा, प्यासा, नग्न रहना सीख लिया है. लेकिन, ये वो बेशकिमती हीरे हैं जिन्हे हर कर्ताधर्ता अपने बगल मे दबाये फिरता है ताकी वे भगवान बने रहें, उनका सिंहासन इन हिरों की बदौलत जगमगाता रहे. मुख मे र राम बगल मे छुरि लिये इन कर्ताधर्ता ओं ने नन्दिग्राम के उन सभी नन्दियों को अपने सामने बिठा कर सर हिलाने के लिये इतना मजबूर कर दिया कि अब शायद वो कभी भी सिर उठा कर अपने भगवान को देखने का, उनसे अपने प्रश्नो के जवाब मांगने का साहस न कर सकेंगे. इती
फिर याद आई तेरी बिखरी
जिन्दगी की
क्या हुआ अगर तू बिखर ने से पहले
समेट न सकी
कहींतो उस बिखरने मे
कोई फूल मुस्कुराया होगा
व्यंग का ही सही
कोई तो कांटा नरम पडा होगा
कटाक्षोन का ही सही
उठ सखी उठ
तेरे अन्दर जो बिखरापन है
उसे झिंजोड दे
तेरे अंतर मे वो झंजावात है
जो बिखरेपन के बादल को चीर देगा
बिजली की तेजीसे समेट लेगा
जरूरत है सिर्फ एक किरण की
उठ सखी जिन्दगी फिर
मुस्कुरा रही है।
एहसास की परिधी मे
जी रही जिन्दगी है
कहांसे शुरु करुं?
जन्म से?
जन्म देने का एहसास
जन्म लेने का एहसास
प्यारे शिशू के
होने काएहसास
उसके रोने हंसने
लडखडाने का एहसास
आगे बढती उम्र का एहसास
बचपन मे बचपने का एहसास
किशोरावस्था में
चंचलता का एहसास
जवानी मे जवानहोंने के
अहंकार का एहसास
मध्यावस्था मे अपने
होंने का एहसास
व्रुधावस्था की देहली पर
जिन्दगी जीने का एहसास
कैसी है ये जिन्दगी जो
एहसास की परिधी से बाहर
एक पल भी जी नही सकति!
और तो क्या कहुं
जीवन के अंतिम क्षण् मे भी
इस एहसास ने साथ नही छोडा
क्योंकी मरने से पहले
मरने का एहसास जो साथ था ।
कहां गये वो ?
भगवान बुद्ध जिन्होने
पक्षि को बाण से घायल देखा
कृश व्यक्ति को दयनीय स्थिती मे
पेट भरने के लिये
भीख मांगते देखा
जीवन की अंतिम अवस्था
शव को ले जाते देखा
उसके पीछे रामनामसत्यहै
लोगों को कहते देखा
सबकुछ छोड कर
उस सत्य के लिये
उन्हें भटकते देखा
आज उसी बुद्ध की जमीन को
हडपते देखा
राम ने रावण को मारा
सीता को बचाने के लिये
आज रावण के हाथों
सीता को मरते देखा
कहां गया वो राम ?
कृष्ण की सहायता से
पांडवों ने कौरवों को हराया
आज कौरव अनेक पांडवों का
नाश कर रहे हैं
कहां गया वो कृष्ण ?
शिवाजी ने मां की सीख को
जीवन मे उतारा
प्रजा की खातिर न्याय को गले लगाया
अपने पुत्र को फांसी की सजा
या देशनिकाला दिया
आज पुत्र के खातिर बाप को
बेगुनाह को मारते देखा
कहां गये वो शिवाजी ?
भगतसिंह सुखदेव को देश के खातिर
फांसी पर चढते देखा
लाजपतराय नेहरु को डंडे खाते देखा
बापू को सत्य,अहिंसा के लिये मरते देखा
आज सिर्फ ` मेरेलिये घर को धन से
भरते देखा
कृषव्यक्ति भुक से मरता है
मरा करें
सीता अपमानित होती है
हुआ करें
गरीब जनता कौरवों से पिटती है
पिटा करें
पुत्र के खातिर बेगुनाह मरता है
मरा करें
सत्य, अहिंसा, देश बिकता है
बिका करें
ये कलियुग है
राम्र राज्य नही ।
जिन्दगी की
क्या हुआ अगर तू बिखर ने से पहले
समेट न सकी
कहींतो उस बिखरने मे
कोई फूल मुस्कुराया होगा
व्यंग का ही सही
कोई तो कांटा नरम पडा होगा
कटाक्षोन का ही सही
उठ सखी उठ
तेरे अन्दर जो बिखरापन है
उसे झिंजोड दे
तेरे अंतर मे वो झंजावात है
जो बिखरेपन के बादल को चीर देगा
बिजली की तेजीसे समेट लेगा
जरूरत है सिर्फ एक किरण की
उठ सखी जिन्दगी फिर
मुस्कुरा रही है।
एहसास की परिधी मे
जी रही जिन्दगी है
कहांसे शुरु करुं?
जन्म से?
जन्म देने का एहसास
जन्म लेने का एहसास
प्यारे शिशू के
होने काएहसास
उसके रोने हंसने
लडखडाने का एहसास
आगे बढती उम्र का एहसास
बचपन मे बचपने का एहसास
किशोरावस्था में
चंचलता का एहसास
जवानी मे जवानहोंने के
अहंकार का एहसास
मध्यावस्था मे अपने
होंने का एहसास
व्रुधावस्था की देहली पर
जिन्दगी जीने का एहसास
कैसी है ये जिन्दगी जो
एहसास की परिधी से बाहर
एक पल भी जी नही सकति!
और तो क्या कहुं
जीवन के अंतिम क्षण् मे भी
इस एहसास ने साथ नही छोडा
क्योंकी मरने से पहले
मरने का एहसास जो साथ था ।
कहां गये वो ?
भगवान बुद्ध जिन्होने
पक्षि को बाण से घायल देखा
कृश व्यक्ति को दयनीय स्थिती मे
पेट भरने के लिये
भीख मांगते देखा
जीवन की अंतिम अवस्था
शव को ले जाते देखा
उसके पीछे रामनामसत्यहै
लोगों को कहते देखा
सबकुछ छोड कर
उस सत्य के लिये
उन्हें भटकते देखा
आज उसी बुद्ध की जमीन को
हडपते देखा
राम ने रावण को मारा
सीता को बचाने के लिये
आज रावण के हाथों
सीता को मरते देखा
कहां गया वो राम ?
कृष्ण की सहायता से
पांडवों ने कौरवों को हराया
आज कौरव अनेक पांडवों का
नाश कर रहे हैं
कहां गया वो कृष्ण ?
शिवाजी ने मां की सीख को
जीवन मे उतारा
प्रजा की खातिर न्याय को गले लगाया
अपने पुत्र को फांसी की सजा
या देशनिकाला दिया
आज पुत्र के खातिर बाप को
बेगुनाह को मारते देखा
कहां गये वो शिवाजी ?
भगतसिंह सुखदेव को देश के खातिर
फांसी पर चढते देखा
लाजपतराय नेहरु को डंडे खाते देखा
बापू को सत्य,अहिंसा के लिये मरते देखा
आज सिर्फ ` मेरेलिये घर को धन से
भरते देखा
कृषव्यक्ति भुक से मरता है
मरा करें
सीता अपमानित होती है
हुआ करें
गरीब जनता कौरवों से पिटती है
पिटा करें
पुत्र के खातिर बेगुनाह मरता है
मरा करें
सत्य, अहिंसा, देश बिकता है
बिका करें
ये कलियुग है
राम्र राज्य नही ।
Wednesday, November 12, 2008
रागिनी
विगत राग की रागिनी है ये जीवन
मन्द्र मध्य तार
आरोह, अवरोह सभी हैं इसमे
कैसे झंकार हो तारों से
जब कोमल और तीव्र
बेसुरे लगते हों?
जीवन मे रिशभ है
तो धैवत भी है
गंधार है तो निषादभी है
कोमल और तीव्र के झगडे मे
सरगम अधुरी है
मैने संगीत साधना की
ध्रुपद और ख़्याल दोनो ही गाये
पर जीवन मे तराना न ला सकी
किसको दोश दूं?
स्वरों को या रागों को?
लगता है जीवन का संगीत
शायद अधुरा ही रहेगा
विगत राग की रागिनी है ये जीवन
मन्द्र मध्य तार
आरोह, अवरोह सभी हैं इसमे
कैसे झंकार हो तारों से
जब कोमल और तीव्र
बेसुरे लगते हों?
जीवन मे रिशभ है
तो धैवत भी है
गंधार है तो निषादभी है
कोमल और तीव्र के झगडे मे
सरगम अधुरी है
मैने संगीत साधना की
ध्रुपद और ख़्याल दोनो ही गाये
पर जीवन मे तराना न ला सकी
किसको दोश दूं?
स्वरों को या रागों को?
लगता है जीवन का संगीत
शायद अधुरा ही रहेगा
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