सर्दि की एक शाम
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सर्दि की एक शाम
जब कोहरे की चादर छाई थी
सोच में पडी थी,मै कौंन हूं?
क्या मेरी पहचान है?
फिर सोचा क्यों न कहूं
मै कौन हूं?
जिन्हे कोई वास्ता नही
मेरे होने ना होने से
कोहरे की चादर हटा कर
’उन्हे’ बताने का
मुझे कोई मोह नही
जोमुझे जानते, समझते हैं
वे सर्दि की
उस शाम का
धीरे से ढलने का
इंतजार करेंगें
वही तो हैं जिन्हे मै
मिलना देखना चाहती हूं
मेरी सोच को वो समझते हैं
सर्दि की इस शाम ने मुझे
जीवन से प्यार करना सिखाया है
कोहरे की चादर के उस पार
जीवन प्यार से बुलाता है
कैसे दिन बिताउं
ये मेरे पर निर्भ्रर है
प्यार का अहसास बताएगा
मै कौन हूं
वसंत की इस शाम का
छटे हुए कोहरे का
खिलखिलाते ऊन फूलों का
मेरे इस प्यार भरे जीवन को
इंतजार है किसी के आने का
सुगन्धित वायू की
मन्द मन्द खुशबू
लहलहाते खेतों पर
खिलखिलाती सरसों
सुनहरी छटा बिखरती
ढलती शाम को
ढोलकी की ताल पर
दूर से आती होरी की गूंज को
कैसे अनदेखा
अनसुना कर दूं?
अब तो समझ गये ना
मै कौन हूं
प्रक़ृती की
अनमोल देनहूं
सुजला
25-2-11
Saturday, February 18, 2012
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