Friday, November 14, 2008

नन्दिग्राम के नन्दि
एक बार भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर बैठे थे. सामने नन्दि(बैल)बैठ कर उनकि हर बात पर सिर सिर
हिलारहा था. भगवान क्या कह रहे थेये शायद उसके समझ से बाहर की बात थी. सही , गलत का फर्क समझ ने की क्षमता उनमे नही थी.
आज नन्दिग्राम के उन गरीबों का हाल उसी नन्दिबैल के समान है. अपने सामने बीठा कर आप उनसे जो भी कहेंगे वो सर हिला देंगे. ‘ममता ‘ ने ममता दिखाइ उसके साथ हो लीये, माओवादि यों ने क्रोध दिलाया उनके पीछे चल दिये, सी.पी.एम. ने नंगा कर दिया तो उनके सामने गिडगिडा दिये , क्या करें बिचारे, ये सभि ( ममता, माओवादी, सी.पी.एम. ) उनके भगवान जो बन बैठे!
क्या विडम्बना है, देश को आजादी मिले 60 वर्श होने को आये पर ये नन्दि आज भी सिर हिला रहे हैं. कहने को तो हर राजनैतिक पार्टि, और विशेश रुप से सी. पी. एम. जो पिछले तीन दशकों से उनके माईबाप बने फिरते हैं, अपनी रोटी पकाने के लिये इन नन्दि यों को ईन्धन बनाते रहे हैं और बनाते रहेंगे.
आज सिर्फ नन्दिग्राम ही नही, देश के हर कोने मे दो स्पष्ट लकीरें हैं जिसने सम्पुर्ण समाज को तीन हिस्सों मे बांट दिया है- एक वो जो लकीर के इस तरफ हैं, अपने आप को देश का कर्ताधर्ता मानते हैं, बीच मे वो मध्यम वर्ग है जो त्रिशंकू की तरह लटका हुआ है जो सबकुछ समझने की क्षमता रखता है पर कुछ भी कर सकने मे असमर्थ है क्योंकी उसे उन कर्ताधर्ता ओं का खौफ है- न जाने कब गाज गिरे- और फिर एक लकीर है जिसके उस तरफ वो नन्दिबैल हैं जो अनपढ है, नीरीह है, जमीन से जुडे हैं जिन्होने शायद जन्म से ही भूखा, प्यासा, नग्न रहना सीख लिया है. लेकिन, ये वो बेशकिमती हीरे हैं जिन्हे हर कर्ताधर्ता अपने बगल मे दबाये फिरता है ताकी वे भगवान बने रहें, उनका सिंहासन इन हिरों की बदौलत जगमगाता रहे. मुख मे र राम बगल मे छुरि लिये इन कर्ताधर्ता ओं ने नन्दिग्राम के उन सभी नन्दियों को अपने सामने बिठा कर सर हिलाने के लिये इतना मजबूर कर दिया कि अब शायद वो कभी भी सिर उठा कर अपने भगवान को देखने का, उनसे अपने प्रश्नो के जवाब मांगने का साहस न कर सकेंगे. इती
फिर याद आई तेरी बिखरी
जिन्दगी की
क्या हुआ अगर तू बिखर ने से पहले
समेट न सकी
कहींतो उस बिखरने मे
कोई फूल मुस्कुराया होगा
व्यंग का ही सही
कोई तो कांटा नरम पडा होगा
कटाक्षोन का ही सही
उठ सखी उठ
तेरे अन्दर जो बिखरापन है
उसे झिंजोड दे
तेरे अंतर मे वो झंजावात है
जो बिखरेपन के बादल को चीर देगा
बिजली की तेजीसे समेट लेगा
जरूरत है सिर्फ एक किरण की
उठ सखी जिन्दगी फिर
मुस्कुरा रही है।






एहसास की परिधी मे
जी रही जिन्दगी है
कहांसे शुरु करुं?
जन्म से?
जन्म देने का एहसास
जन्म लेने का एहसास
प्यारे शिशू के
होने काएहसास
उसके रोने हंसने
लडखडाने का एहसास
आगे बढती उम्र का एहसास
बचपन मे बचपने का एहसास
किशोरावस्था में
चंचलता का एहसास
जवानी मे जवानहोंने के
अहंकार का एहसास
मध्यावस्था मे अपने
होंने का एहसास
व्रुधावस्था की देहली पर
जिन्दगी जीने का एहसास
कैसी है ये जिन्दगी जो
एहसास की परिधी से बाहर
एक पल भी जी नही सकति!
और तो क्या कहुं
जीवन के अंतिम क्षण् मे भी
इस एहसास ने साथ नही छोडा
क्योंकी मरने से पहले
मरने का एहसास जो साथ था ।

कहां गये वो ?
भगवान बुद्ध जिन्होने
पक्षि को बाण से घायल देखा
कृश व्यक्ति को दयनीय स्थिती मे
पेट भरने के लिये
भीख मांगते देखा
जीवन की अंतिम अवस्था
शव को ले जाते देखा
उसके पीछे रामनामसत्यहै
लोगों को कहते देखा
सबकुछ छोड कर
उस सत्य के लिये
उन्हें भटकते देखा
आज उसी बुद्ध की जमीन को
हडपते देखा
राम ने रावण को मारा
सीता को बचाने के लिये
आज रावण के हाथों
सीता को मरते देखा
कहां गया वो राम ?
कृष्ण की सहायता से
पांडवों ने कौरवों को हराया
आज कौरव अनेक पांडवों का
नाश कर रहे हैं
कहां गया वो कृष्ण ?
शिवाजी ने मां की सीख को
जीवन मे उतारा
प्रजा की खातिर न्याय को गले लगाया
अपने पुत्र को फांसी की सजा
या देशनिकाला दिया
आज पुत्र के खातिर बाप को
बेगुनाह को मारते देखा
कहां गये वो शिवाजी ?
भगतसिंह सुखदेव को देश के खातिर
फांसी पर चढते देखा
लाजपतराय नेहरु को डंडे खाते देखा
बापू को सत्य,अहिंसा के लिये मरते देखा
आज सिर्फ ` मेरेलिये घर को धन से
भरते देखा
कृषव्यक्ति भुक से मरता है
मरा करें
सीता अपमानित होती है
हुआ करें
गरीब जनता कौरवों से पिटती है
पिटा करें
पुत्र के खातिर बेगुनाह मरता है
मरा करें
सत्य, अहिंसा, देश बिकता है
बिका करें
ये कलियुग है
राम्र राज्य नही ।

Wednesday, November 12, 2008

कालासूरज तूझे सलाम
मैने किया तुझे प्रणाम
न करना निराश
न होना उदास
जीवन की नैया को
तरंगो का सहारा
तरंगों को मिलेगा
सूरज का उजाला
यिश्वास है कि
पार लगेगी ये नैया
निराशा न होगी
उदासी न होगी
जब सूरज के अन्धेरो को
तारोंका उजाला
तो कैसे न होगीपरिक्शित जीवन की आशा.
रागिनी
विगत राग की रागिनी है ये जीवन
मन्द्र मध्य तार
आरोह, अवरोह सभी हैं इसमे
कैसे झंकार हो तारों से
जब कोमल और तीव्र
बेसुरे लगते हों?
जीवन मे रिशभ है
तो धैवत भी है
गंधार है तो निषादभी है
कोमल और तीव्र के झगडे मे
सरगम अधुरी है
मैने संगीत साधना की
ध्रुपद और ख़्याल दोनो ही गाये
पर जीवन मे तराना न ला सकी
किसको दोश दूं?
स्वरों को या रागों को?
लगता है जीवन का संगीत
शायद अधुरा ही रहेगा
काश

काश से सवाल हल हुआ नही करते
यह जिन्दगी इसके सहारे जी नही सकते.
जब जागो तभि सवेरा, यह एक कहावत है
पर रात के अन्धेरे को दिन का उजाला कह नही सकते
बाप बेटे की पटती नही
सास बहू की जमती नही
मां बेटी एक तरफ हो जाएं
तो बाप बेटे की भी चलति नही.
रिश्तों में जब इतनी कडवाहट है
तो विचारों मे समझदारी कहां से हो?
काश ऐसा हो सकता?
यह एक भ्रम है
जिन्दगी जीने का नाम है
यह एक क्रम है.




शांति की खोज

घर से निकली थी
शांति की खोज में
शांति?
अरे वही जिसे हरकोई
मन:शांति के नाम से जानते हैं.
जिसजिस को पूछा,
शांति मिली क्या?
पूरब से पश्चिम तक
गरदन हिला कर
जवाब मिला नही.
हर किसी ने सलाह दी
आगे बढती जाओ
जिन्दगी के उस आखरी छोर पर
शायद खडी हो!
वहां तक जाने के लिये
मै अभी तैयार न थी.
इस लिये लौट आई.
आकर झरोखे में बैठ गई
आपने कभी झरोखे मे बैठ कर
नीचे झांक कर
देखा है?
जरूर देखिये
शायद वहीं आपके प्रश्ण का
जीवन के सारांश का
न चाहते हुए भी
उत्तर मिल जाये.
वही हुआ
नीचे झांक कर देखा
अरे! ये आक्रुति तो पहचानी सी है
झरोखेसे उठ कर
दालान मे आई
कुंडी खडखडाई
अन्दर से आवाज आई
खुला है
जाकर देखा
आंख पर चश्मा
हात मे किताब
शांतचित्त किताब मे मग्न
मुखप्रुष्ट पर झांका
हंसते हुए खडी थी
मन: शांति.
तुम राम मै रावण.तुमसामाजिक मै असामाजिक.
तुम राम, मै रावण
तुम्हारेलिये आवश्यक लौकिकसम्मान
मेरेलिये आवश्यक आत्मसम्मान.
तुम्हारेलिये आवश्यक अहिल्या का उद्धार
मेरेलिये आवशक शुर्पणखा की नाक का बदला.
तुम राजा के पुत्र जो ब्राम्हण बने,
मै ब्राम्हण पुत्र जो राजा बना.
तुमने शिव का धनुश उठाया,
मैने शिव का कैलाश उठा लिया.
तुमने छल से छुप कर बालि को मारा,
मै खुलेआम बल से लड कर बालि से हारा.
तुम हर साल अपनी छल से जीति हुई,
विजय का डंका बजाते हो,
मै हरसाल सारी दुनिया के पाप उठाये,
जल लाता हूं
फिर तुम कैसे राम, और मै क्यूं रावण

जवाब

न मै राम न तुम रावण
आत्मसम्मान से पहले जरुरि है
आत्म नीरिक्षण
लौकिक सम्मान तो मिल ही जायेगा.
अहिल्या उद्धार या शुर्पणखा की नाक के
बदले ही मे सिर्फ
सामाजिकता नहि मिलेगी.
राम को असामाजिकता का नाश करना होगा
उसकेलिये रावण होने की जरुरत नही
आज छल से छुप कर बाली को मारने की भी आवश्यकता नही
हर दिन तो खुलेआम राम मर रहा है
चाहे धनुश उठाओ या कैलाश
आज राम और रावण दोनो ही दयनीय हैं.
एक थी साई
विश्वास की जाई
बोली
मेरे भगवन तुम महान हो
सभ्य हो
सत्य हो
सैर भी हो
भ्रम तो नहीं हो?
विश्वास ने दिया धोखा
भ्रम ने हाथ थामा
चली साई उसके आसरे
बोली भगवन तुम महान हो
वैध हो
अवैध हो
असम्भव हो
भ्रम ने छोडा साथ
साई गिरी, फिर उठी
वैध के सहारे
झेले अंगारे
खाये क्षण
अवैध के साथ हो ली
बोली मेरे भगवन तुम महान हो
विश्वास, भ्रम, वैध अवैध
सब को लेकर
मैं तेरे पीछे
मैं साई विश्वास की जाई
तुझमें समाने चली आई
ये कोई भ्रम तो नहीं?